कैफ़-ए-हयात तेरे सिवा कुछ नहीं रहा तेरी क़सम है तुझ से जुदा कुछ नहीं रहा वल्लाह सब रुतें हैं परेशाँ तिरे बग़ैर वल्लाह मौसमों का मज़ा कुछ नहीं रहा तूफ़ान साहिलों को उड़ाते चले गए कैसे कहूँ कि कुछ भी रहा कुछ नहीं रहा अफ़्सोस मा'बदों में ख़ुदा बेचते हैं लोग अब मा'नी-ए-सज़ा-ओ-जज़ा कुछ नहीं रहा हम मय-कशों पे कुफ़्र के फ़तवे दिए गए अहल-ए-ख़ुदा को ख़ौफ़-ए-ख़ुदा कुछ नहीं रहा हम तो वफ़ा-परस्त रहेंगे तमाम उम्र माना कि उन को पास-ए-वफ़ा कुछ नहीं रहा 'कैफ़ी' मैं किस तरह से वो मंज़र बयाँ करूँ मैं ने जो रो के उन से कहा कुछ नहीं रहा