क़िस्सा तो ज़ुल्फ़-ए-यार का तूल ओ तवील है क्यूँकर अदा हो उम्र का रिश्ता क़लील है गुंजाइश-ए-दो-शाह नहीं एक मुल्क में वहदानियत के हक़ की यही बस दलील है मशहद पे दिल के दीदा-ए-गिर्यां पुकार दे प्यासा न जा ब-नाम-ए-शहीदाँ सबील है नज़रें लड़ाने में वो तग़ाफ़ुल है ख़ुश-नुमा जिस तरह से पतंगों के पंजों में ढील है 'ईमान' क्या बयाँ करूँ उस शहसवार का हाज़िर जिलौ के बीच जहाँ जिब्रईल है