कैसे दिल लगता हरम में दौर-ए-पैमाना न था इस लिए फिर आए का'बे से कि मय-ख़ाना न था तुम ने देखी ही नहीं तक़दीर की तारीकियाँ इक अँधेरी गोर थी फ़ुर्क़त में काशाना न था मजमा-ए-बैत-उल-हरम की धूम सुनते थे मगर जा के जब देखा तो उन में कोई फ़रज़ाना न था हश्र में उस शोख़ का तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल देखना मुझ को पहचाना नहीं हालाँकि बेगाना न था हश्र में आख़िर उसे भी छोड़ते ही बन पड़ी ख़ाना-ए-मदफ़न भी गोया अपना काशाना न था ऐसी क्या बीती कि 'मुज़्तर' उन बुतों पर मर मिटा जान दे देता वो कुछ ऐसा तो दीवाना न था