कैसे काटेंगे शब-ए-ग़म को सहर होने तक हम पे क्या गुज़रेगी ये मा'रका सर होने तक कोई सौदा-ए-मोहब्बत का ख़रीदार न था घर घर आवारा फिरा है मिरे सर होने तक सर-ए-सौदा-ज़दा ज़िंदाँ की हक़ीक़त क्या है दम न लेना कभी दीवार के दर होने तक डर किसी का नहीं सारी शब-ए-ग़म अपनी है ख़ूब रो ले दिल-ए-नाकाम सहर होने तक जल गया सोज़-ए-मोहब्बत से मिरा ख़ून-ए-जिगर इस को रहने न दिया लाल-ओ-गुहर होने तक आह-ए-सोज़ाँ से नई दश्त में आई है बहार धूम थी ग़ोल की तूफ़ान-ए-शरर होने तक कोई इख़्फ़ा-ए-ग़म-ए-इश्क़ की सूरत न रही आँसू बहते रहे दामन मिरा तर होने तक इज़्तिराब-ए-निगह-ए-शौक़ हुआ माने-ए-दीद जल्वा पोशीदा रहा ताब-ए-नज़र होने तक दानिश-ए-सिर्र-ए-हक़ीक़त थी इसी पर मौक़ूफ़ बे-ख़बर हो गए हम अपनी ख़बर होने तक है अभी से हमें आदाब-ए-मोहब्बत का ख़याल नाम कर जाएँगे उमर अपनी बसर होने तक तुम को 'शाकिर' है अबस दाद-ए-सुख़न की उम्मीद कौन दुनिया में रहे क़द्र-ए-हुनर होने तक