कैसे पाऊँ तुझे गिर्दाब नज़र आता है और तू मुझ को तह-ए-आब नज़र आता है तू जो दिख जाए तो मैं ईद मुकम्मल समझूँ अब मुझे तुझमें ही महताब नज़र आता है चाक दामन भी है मुफ़लिस भी है बे-घर भी है इस लिए ज़र का उसे ख़्वाब नज़र आता है एक वो शख़्स जो औरों के लिए जीता हो आज के दौर में कमयाब नज़र आता है दौर-ए-मुश्किल में मुझे जिस ने नहीं पहचाना आज वो मिलने को बेताब नज़र आता है