क़ज़ा है ज़िंदगी लगने लगा था मुझे जब अलविदा'अ उस ने कहा था बहुत रोया वो दीवारों से लग कर मकाँ में और उस के क्या बचा था मैं अपने पास ही बैठी थी दिन भर किसी का साथ दूभर हो रहा था ये क़िस्मत है कि मुरझाई नहीं मैं ज़मीं को जब मिरी बदला गया था जो तुम थे साथ तो हर सू थी ख़ुशबू हवाओं में न जाने क्या घुला था थी इतनी बेकली मंज़िल की मुझ को कि मेरे साथ रस्ता चल पड़ा था