क़ाज़ी के मुँह पे मारी है बोतल शराब की ये उम्र भर में एक हुई है सवाब की ऐ यार तेरे लब पे तबस्सुम नहीं नुमूद पैदा है माह-ए-नौ से किरन आफ़्ताब की आया मिज़ा पे लख़्त-ए-दिल-ए-बे-क़रार याद गर्दिश जो हम ने सीख़ पे देखी कबाब की तेरी कुदूरतों ने मुझे ख़ाक कर दिया तेरे ग़ुबार ने मिरी मिट्टी ख़राब की मेरी ख़ताएँ आ नहीं सकती शुमार में गिनती हो क्या तिरे करम-ए-बे-हिसाब की साक़ी तिरे करम से ये उम्मीद है मुझे हो रोज़-ए-हश्र हाथ में बोतल शराब की मस्तान-ए-इश्क़ आए तअ'ल्ली पर ऐ फ़लक अब ख़ैर माँग तू क़दह-ए-आफ़्ताब की नश्शा ज़मीं से सू-ए-फ़लक ले उड़ा मुझे साक़ी शराब ने मिरी मिट्टी ख़राब की दो रोज़ जा के आबना-रूयों की बज़्म में क्या शक्ल हो गई दिल-ए-ख़ाना-ख़राब की बिजली नहीं तड़पती है ऐ दिल ये आसमान पर्वाज़ उड़ा रहा है तिरे इज़्तिराब की अबरू की तेग़ से जो बचा मैं तो यार ने बर्छी लगाई बढ़ के निगाह-ए-इताब की अल्लाह रे असर मिरी बख़्त-ए-सियह का पीरी में एहतियाज नहीं है ख़िज़ाब की 'नाज़िम' मिरे गुनाह हैं बाहर हिसाब से तशवीश कुछ नहीं मुझे रोज़-ए-हिसाब की