कल रात मेरे साथ अजब हादिसा हुआ सूरज पिघल के मेरी हथेली पे आ गिरा देखे हैं मेरी आँखों ने मंज़र अजब अजब इक पेड़ मेरे शहर का सायों को खा गया सहरा में आब और समुंदर में रेत है या-रब मैं आज कौन सी दुनिया में आ गया कैसा तमाशा देखा था हम ने ये रात भर तारे चमक रहे थे मगर आसमाँ न था रहज़न तो ख़ुद ही डर के गुफाओं में छुप गए अब राह-रौ को लूटता फिरता है रास्ता इन साअ'तों को सुब्ह कहें भी तो किस तरह सूरज उगा हुआ था अँधेरा छटा न था बादल बरस रहे हैं मुसलसल मगर 'ख़ुमार' दरिया तमाम ख़ुश्क हैं झरनों को क्या हुआ