कल शाम लब-ए-बाम जो वो जल्वा-नुमा था किस शौक़ से मैं दूर खड़ा देख रहा था जब दोस्त भी दुश्मन का तरफ़-दार हुआ था ठंका था उसी दिन सर-ए-महफ़िल मिरा माथा गूँजा हुआ इक नग़्मा सर-ए-अर्ज़-ओ-समा था नग़्मा था कि बीती हुई सदियों की सदा था भूली नहीं उजड़े हुए गुलशन की बहारें हाँ याद हैं वो दिन कि हमारा भी ख़ुदा था हर बर्ग से आती थी गुल-ओ-लाला की ख़ुश्बू हर मौज-ए-हवा में नफ़स-ए-यार घुला था तासीर-ब-दामन थीं जवानी की दुआएँ हर आह असर-ख़ेज़ थी हर नाला रसा था झपकी थी ज़रा आँख कि बरहम हुई महफ़िल हम ने अभी कुछ उन से कहा था न सुना था जिस बात का इज़हार था इज़हार-ए-हक़ीक़त देखा तो उसी बात पे हंगामा बपा था वो दरपय-ए-आज़ार हैं अहबाब मुख़ालिफ़ ये दिन भी ग़रीबों के मुक़द्दर में लिखा था क्या देख लिया आज कि जी सोच रहा है ये वाक़िआ' यूँही कभी पहले भी हुआ था हम बज़्म से जाएँगे तो अहबाब कहेंगे इक शाइर-ए-आवरा यहाँ नग़्मा-सरा था बेगाना-वशी कम न हुई आप की उस से हर चंद 'हमीद' आप का पाबंद-ए-वफ़ा था