कल तक उस की वो मेहरबानी थी आज देखा तो सरगिरानी थी किया ग़मगीन उस ने हम को नित जिस के मिलने की शादमानी थी गो ब-ज़ाहिर वो ग़ैर से था दो-चार हम से भी दोस्ती निभानी थी जल-बुझे तब खुला पतंगों पर शम्अ और दोस्ती ज़बानी थी आ गया रहम उस के दिल में आह हम ने यूँ अपनी मर्ग ठानी थी सो गया सुनते ही वो ग़म की मिरे सरगुज़िश्त उस के तईं कहानी थी न 'जहाँदार' जाने था ऐ 'मीर' दोस्ती मुद्दई-ए-जानी थी