कल वस्ल में भी नींद न आई तमाम शब एक एक बात पर थी लड़ाई तमाम शब ये भी है ज़ुल्म तो कि उसे वस्ल में रहा ज़िक्र-ए-तुलू-ए-सुब्ह-ए-जुदाई तमाम शब किस बे-अदब को अर्ज़-ए-हवस हर निगह में थी आँख उस ने बज़्म में न उठाई तमाम शब याँ इल्तिमास-ए-शौक़ वहाँ ऐहतिराज़-ए-नाज़ मुश्किल हुई थी ओहदा-बराई तमाम शब क्या सर पे कोहकन के हुई बे-सुतूँ से आज 'ममनूँ' सदा-ए-तेशा न आई तमाम शब