क़लम की नोक पे रक्खूँगा इस जहान को मैं ज़मीं लपेट के रख दूँ कि आसमान को मैं अज़ीज़ जाँ हो जिसे मुझ से वो गुरेज़ करे कि आज आया हुआ हूँ ख़ुद अपनी जान को मैं है मौज मौज मुख़ालिफ़ मिरे सफ़ीने की और उस पे खोलने वाला हूँ बादबान को मैं फ़रेब-ए-ज़ात से बाहर निकल के देख मुझे बता रहा हूँ ज़माने की आन-बान को मैं हमेशा लफ़्ज़ की हुर्मत का पास रक्खा है बड़ा अज़ीज़ हूँ लफ़्ज़ों के ख़ानदान को मैं अगर मैं चाहूँ तो 'मुमताज़' आसमाँ में उड़ूँ गुमाँ यक़ीन को दे दूँ यक़ीं गुमान को मैं