क़लम उठाऊँ मुसलसल रवाँ-दवाँ लिख दूँ कोई पढ़े न पड़े मैं कहानियाँ लिख दूँ जहाँ तक आएँ तसव्वुर में वादियाँ लिख दूँ फिर उन पे नाम तुम्हारा यहाँ वहाँ लिख दूँ जहाँ मिले मुझे रोटी उसे लिखूँ धरती जहाँ पहुँच न सकूँ उस को आसमाँ लिख दूँ निकल चलूँ कहीं हुस्न-ओ-जुनूँ के जंगल में हिरन की आँख में काजल की डोरियाँ लिख दूँ कहानी ख़त्म हुई लेकिन इस का क्या कीजे जो लफ़्ज़ याद अब आए उन्हें कहाँ लिख दूँ जो ज़ेहन में हैं हुरूफ़ उन को काम में लाऊँ जो दुख पड़े ही न हों उन की दास्ताँ लिख दूँ कुछ ऐसा पत्र लिखूँ आप को जो भा जाए मरा हूँ आप के गिन अपनी ख़ामियाँ लिख दूँ ग़ज़ल तो कह दूँ 'रज़ा' ये भी तो इजाज़त हो जिसे तू हिंदवी कहता था वो ज़बाँ लिख दूँ