कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी हुआ क्या जान को मेरी अभी तो थी भली-चंगी ज़क़न की चाह में ये सब्ज़ी-ए-ख़त ज़हर-ए-क़ातिल है परी है भाँग कूए में न हो क्यूँ ख़ल्क़ चित-भंगी जहाँ की तरह सौ सौ रंग पल पल में बदलता है कभू कुछ है कभू कुछ है कभू कुछ है वो बहू-रंगी तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम जो कुछ कहिए तो बल खा उलझती है ज़ुल्फ़ बे-ढंगी ग़रीबों का ख़ुदा-हाफ़िज़ है 'हातिम' देखिए क्या हो कि वो है चूर कैफ़ी हाथ में शमशीर है नंगी