कली कहते हैं उस का सा दहन है सुना करिए कि ये भी इक सुख़न है टपकते दर्द हैं आँसू की जागा इलाही चश्म या ज़ख़्म-ए-कुहन है ख़बर ले पीर-ए-कनआँ' की कि कुछ आज निपट आवारा बू-ए-पैरहन है नहीं दामन में लाला बे-सुतूँ के कोई दिल-ए-दाग़ ख़ून-ए-कोहकन है शहादत-गाह है बाग़-ए-ज़माना कि हर गुल उस में इक ख़ूनीं-कफ़न है करूँ क्या हसरत-ए-गुल को वगर्ना दिल पर दाग़ भी अपना चमन है जो दे आराम टक आवारगी 'मीर' तो शाम-ए-ग़ुर्बत इक सुब्ह-ए-वतन है