काम आ गई है गर्दिश-ए-दौराँ कभी कभी देखी है ज़ुल्फ़-ए-यार परेशाँ कभी कभी ख़ून-ए-जिगर से आतिश-ए-सोज़ाँ को शह मिली ख़ुद दर्द बन के रह गया दरमाँ कभी कभी तूफ़ाँ की ठोकरों से किनारा कभी मिला साहिल से आ के ले गया तूफ़ाँ कभी कभी वहशत ने मुझ को बज़्म-ए-तरब से उठा दिया निकला उस अंजुमन से परेशाँ कभी कभी अक्सर ख़ुशी ही बन गई है दुश्मन-ए-सुकूँ ग़म बन गया सुकूत का सामाँ कभी कभी दस्त-ए-ख़िरद ने मस्लहतन चाक भी किया सी भी लिया जुनूँ ने गरेबाँ कभी कभी दीवानों में शुमार हुआ उस ग़रीब का 'इक़बाल' हो गया जो ग़ज़ल-ख़्वाँ कभी कभी