कमाल-ए-आदमी की इंतिहा है वो आइंदा में भी सब से बड़ा है कोई रफ़्तार होगी रौशनी की मगर वो उस से भी आगे गया है जहाँ बैठे सदा-ए-ग़ैब आई ये साया भी उसी दीवार का है मुजस्सम हो गए सब ख़्वाब मेरे मुझे मेरा ख़ज़ाना मिल गया है हक़ीक़त एक है लज़्ज़त में लेकिन हिकायत सिलसिला-दर-सिलसिला है यूँही हैराँ नहीं हैं आँख वाले कहीं इक आइना रक्खा हुआ है विसाल-ए-यार से पहले मोहब्बत ख़ुद अपनी ज़ात का इक रास्ता है सलामत आइने में एक चेहरा शिकस्ता हो तो कितना देखता है