कमान सौंप के दुश्मन को अपने लश्कर की कहा कि फ़त्ह-ओ-ज़फ़र बात है मुक़द्दर की बुलावा लाई हवा-ए-बहिश्त फिर इक बार तुयूर जाँच करो अपने अपने शहपर की चलो रख आएँ वहाँ हम भी अपने सर का गुलाब सुना है बहुतों ने उस की गली मोअत्तर की पता चला कि वही है निसाब से बाहर मशक़्क़तों से जो मैं ने किताब अज़्बर की ब-जुज़ हवाला-ए-सद-ज़ख़्म-ए-बे-निशाँ क्या है इक आरज़ू कि जो दिल से निकाल बाहर की परे है सूरत-ए-ख़ूबाँ तलाश-ए-मअ'नी से मिले न आब भी खोलें गिरह जो गौहर की है मुंतज़िर पस-ए-दरवाज़ा-ए-फ़ना शायद जो एक बोसे में छीने तकान दिन भर की