कम-ख़्वाब थे औरों को जगाते हुए गुज़रे हम वक़्त-ए-सहर ढोल बजाते हुए गुज़रे इक जादा-ए-पुर-ख़ार थी दुश्वार थी दुनिया उश्शाक़ मगर झूमते गाते हुए गुज़रे हर नाज़-ए-सबा रश्क-ए-चमन हुस्न-ए-मुजस्सम पथराए अगर आँख मिलाते हुए गुज़रे इक ज़ीस्त की वादी थी मगर याद नहीं है आते हुए गुज़रे थे कि जाते हुए गुज़रे पहले किया तख़्लीक़ उसे आग से हम ने फिर हम ही उसे हाथ लगाते हुए गुज़रे सुर-ताल को अश्काल को अल्फ़ाज़ में ढाला इम्कान को इम्कान बनाते हुए गुज़रे वो जान-ए-सुख़न गोश-बर-आवाज़ नहीं था दीवार को अशआ'र सुनाते हुए गुज़रे कुछ ख़ूगर-ए-दुनिया तो किसी को ग़म-ए-यज़्दाँ दरवेश मगर हाथ छुड़ाते हुए गुज़रे शर्मिंदा-ए-वुसअ'त हैं ज़मीनें भी ख़ला भी दर दश्त-ओ-दमन ख़ाक उड़ाते हुए गुज़रे मुँह रख के तिरे मुँह पे तुझे साँस पिलाई हम जाँ से तिरी जान बचाते हुए गुज़रे हम भूल भी जाएँ तो हमें ढूँड सके तू रस्ते में तिरे फूल गिराते हुए गुज़रे इस चश्म-ए-नमक-बार की वीरान गली से बारिश में लगातार नहाते हुए गुज़रे लोगों ने किया दौर-ए-जुनूँ ग़र्क़-ए-इबादत 'आकाश' मियाँ खेलते खाते हुए गुज़रे