कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का मिरी निगाह में मंज़र है शाम ढलने का ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से तमाशा देख रहा हूँ मैं अपने जलने का सुना है घर पे मिरा मुंतज़िर नहीं कोई सो अब के बार मैं हरगिज़ नहीं सँभलने का ख़ुद अपनी ज़ात पे मरकूज़ हो गया हूँ मैं कि हौसला ही नहीं तेरे साथ चलने का अब आ गए हो तो फिर उम्र भर यहीं ठहरो बदन से कोई भी रस्ता नहीं निकलने का 'सलीम' शम्-ए-वजूद आ गई है बुझने पर बस इंतिज़ार करो मोम के पिघलने का