कनार-ए-बर्ग-ए-तबस्सुम लरज़ता क़तरा है ज़मीं की कोख में लावा पिघलता रहता है सुलग रही हैं दिल-ओ-जाँ की काएनातें और लबों की ओट में शो'ला छुपाए रक्खा है हबाब सी किसी साअ'त में तुझ से मिलने को कई युगों का मुझे इंतिज़ार करना है तिरे फ़िराक़ में बदले हैं ऐसे कौन-ओ-मकाँ उदास रात में इक दोपहर भी ज़िंदा है ज़बाँ पे शोरिश-ए-हर्फ़-ए-शिकायत-ए-जानाँ इनायतों का तह-ए-दिल में शोर बरपा है उफ़ुक़ के बाम भी हैं दम-ब-ख़ुद तिरी ख़ातिर तिरी तलाश में बिखरा हुआ ये सहरा है उलझ रही है अबस मौज-ए-ख़ून साहिल से हर एक हर्फ़-ए-तमन्ना सदा-ब-सहरा है डुबो के आ गया मैं अपनी हर सदा लेकिन मिरे वजूद में ये किस की चीख़ ज़िंदा है