काँटों में ही कुछ ज़र्फ़-ए-समाअत नज़र आए गुलशन में कहीं तो मेरी रूदाद सुनी जाए इस कारगह-ए-शीशा में आईना हूँ मैं भी चेहरा नहीं कोई तो कोई संग ही आए गुल-गश्त का अब ज़ौक़ न कुछ क़द्र-ए-बहाराँ इक उम्र से हूँ ज़ख़्मों का गुलज़ार सजाए मंज़िल का है इम्काँ न कोई ख़त्म-ए-सफ़र का इस आबला-पाई को कोई नाम दिया जाए इस वादी-ए-कोहसार में पत्थर ही नहीं हैं है और बहुत कुछ भी किसी को तो नज़र आए हाँ तेज़ बहुत तेज़ है अब वक़्त की रफ़्तार इस दिल का करूँ क्या कि जो चल पाए न रुक पाए ताँबे सी ज़मीं और सिवा नेज़े पे सूरज तक़दीर ने यूँ हश्र के आसार दिखाए इक गर्द-ए-मसाफ़त थी जो चेहरे से न उतरी वैसे तो यहाँ हम ने कई शहर बसाए 'इमदाद'-निज़ामी न सुखनवर थे न शाएर कुछ ज़ख़्म अमानत थे किसी की वही ले आए