कर गए अश्क मिरी आँख को जल-थल क्या क्या अब के बरसा है तिरी याद का बादल क्या क्या जिस तरफ़ देखिए इक क़ौस-ए-क़ुज़ह है रक़्साँ रंग भरता है फ़ज़ा में तिरा आँचल क्या क्या तू तो चुप-चाप था लेकिन तुझे मा'लूम नहीं कह गया मेरी नज़र से तिरा काजल क्या क्या शहर-ए-सफ़्फ़ाक की बे-दर्द गुज़रगाहों में जगमगाते हैं चराग़-ए-सर-ए-मक़्तल क्या क्या किस लिए जाएँ भला दश्त को हम दीवाने शहर ही बनते चले जाते हैं जंगल क्या क्या अब भी हर मोड़ पे इक तिश्ना-लबी है 'बेताब' यूँ तो इस शहर पे बरसा किए बादल क्या किया