कार-गर इश्क़ में अब तक ग़म-ए-पिन्हाँ न हुआ मैं अभी बे-ख़बर-ए-कुल्फ़त-ए-हिज्राँ न हुआ माना-ए-दश्त-नवर्दी मुझे ज़िंदाँ न हुआ दर-ओ-दीवार से कुछ होश का सामाँ न हुआ बाग़ में बाद-ए-सबा भेजने वाले हर सुब्ह हम असीरान-ए-क़फ़स पर कभी एहसाँ न हुआ निगह-ए-नाज़ है और अहल-ए-हवस के दिल में हाए वो तीर जो पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ न हुआ दश्त-ए-ग़ुर्बत में परेशाँ नहीं दिल तंग नहीं अभी दीवाना तिरा क़ाबिल-ए-ज़िंदाँ न हुआ हम ने देखा है वो अंदाज़-ए-जुनूँ भी जो कभी चाक-दिल चाक-जिगर चाक-गरेबाँ न हुआ रंग को हसरत-ए-परवाज़ अभी बाक़ी है आलम-ए-निकहत-ए-बर्बाद-ए-गुलिस्ताँ न हुआ दार से उठता है इक ना'रा-ए-मस्ताना हनूज़ हाए वो दर्द जो शर्मिंदा-ए-दरमाँ न हुआ हाँ बुझा दे दिल-ए-सोज़ाँ को मगर तू जाने बज़्म-ए-हस्ती में जो ये सोख़्ता-सामाँ न हुआ ख़ूबियाँ तुझ में हैं ऐ इश्क़ ज़माने भर की ये तो कुछ दावा-ए-हमताई-ए-ख़ूबाँ न हुआ हुस्न-ए-गुलज़ार से दिल चाक हुआ जाता है जोश-ए-गुल चारागर-ए-तंगी-ए-दामाँ न हुआ सरहदें जल्वा-गह-ए-नाज़ से जिस की न मिलें वो तो इक खेल हुआ चाक-ए-गरेबाँ न हुआ कहती है वस्ल की शब वो निगह-ए-ख़्वाब-आलूद ख़त्म अभी क़िस्सा-ए-बेताबी-ए-हिज्राँ न हुआ आज तक सुब्ह-ए-अज़ल से वही सन्नाटा है इश्क़ का घर कभी शर्मिंदा-ए-मेहमाँ न हुआ ज़िंदगी क्या वो तिरे ग़म से जो दिल-तंग नहीं क्या वो शीराज़ा-ए-हस्ती जो परेशाँ न हुआ अहल-ए-ज़िंदाँ का ये मजमा है सुबूत इस का 'फ़िराक़' कि बिखर कर भी ये शीराज़ा परेशाँ न हुआ