कार-ए-ख़ुलूस-ए-यार का मुझ को यक़ीन आ गया इतना शदीद वार था मुझ को यक़ीन आ गया बस यूँही कुछ गुमाँ सा था कोई पस-ए-सुख़न भी है दर जो लब-कुशा हुआ मुझ को यक़ीन आ गया फिर वो हवा का क़हक़हा कान में गूँजने लगा और भी इक दिया बुझा मुझ को यक़ीन आ गया दायरा-वार था सफ़र इश्क़-ए-जुनूँ-सिफ़ात का हिज्र-ओ-विसाल कुछ न था मुझ को यक़ीन आ गया अब मिरा दर्द बुझ गया अब मिरा ज़ख़्म भर चला फिर वही दोस्त आएगा मुझ को यक़ीन आ गया