क़रीब आते हुए और दूर जाते हुए ये कौन लोग हैं बे-वज्ह मुस्कुराते हुए ये लम्हे साज़-ए-अज़ल से छलक के गिर गए थे तभी से यूँ ही मुसलसल हैं गुनगुनाते हुए इक ऐसी सम्त जिधर कब से हू का आलम है मैं जा रहा हूँ अकेला क़दम बढ़ाते हुए मैं कब से देख रहा हूँ अजीब सी हरकत मिरा लिखा हुआ कुछ लोग हैं मिटाते हुए जो दल के पास थे उन से है मअ'रका दरपेश चला हूँ जज़्बों की दीवार आज ढाते हुए