कारोबार-ए-इश्क़ की कसरत कभी ऐसी न थी दिल न था तो तंगी-ए-फ़ुर्सत कभी ऐसी न थी यास से वीरानी-ए-हसरत कभी ऐसी न थी दिल में सन्नाटा न था वहशत कभी ऐसी न थी उन के वा'दे पर हमें जीना पड़ा है हश्र तक वर्ना तूलानी शब-ए-फ़ुर्क़त कभी ऐसी न थी देख डाले ज़िंदगी में वस्ल-ओ-फुर्क़त के तिलिस्म ग़म कभी ऐसा न था राहत कभी ऐसी न थी आप ने बीमार-पुर्सी की तो जीना है वबाल वर्ना मरने की मुझे हसरत कभी ऐसी न थी बा-मज़ा है किस क़दर इंकार उन का वस्ल में तुझ में ऐ ख़ून-ए-जिगर लज़्ज़त कभी ऐसी न थी दिल को क्या समझा दिया नौमीदी-ए-जावेद ने पर्दा-दार-ए-ग़म शब-ए-फ़ुर्क़त कभी ऐसी न थी ज़िंदगी की कश्मकश से मर के पाई कुछ नजात इस से पहले ऐ 'नज़र' फ़ुर्सत कभी ऐसी न थी