कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ तुझ से मिलना था कि मैं कुछ और भी तन्हा हुआ कोई पलकों से उतरती रात को रोके ज़रा शाम की दहलीज़ पर इक साया है सहमा हुआ मुंजमिद होती चली जाती हैं आवाज़ें तमाम एक सन्नाटा है सारे शहर में फैला हुआ आसमानों पर लिखी तहरीर धुँदली हो गई अब कोई मसरफ़ नहीं आँखों का ये अच्छा हुआ इस हथेली में बहुत सी दस्तकें रू-पोश हैं उस गली के मोड़ पर इक घर था कल तक क्या हुआ