करते हैं वही लोग जहाँ ताज़ा-तर आबाद हर दौर में रखते हैं जो सीना शरर-आबाद पुर-शोर गुलिस्ताँ हैं न अब दश्त-ओ-दर आबाद क्या जाने कहाँ हो गए अहल-ए-नज़र आबाद ठहराव किसी शय के मुक़द्दर में नहीं है दुनिया है वो जादा जिसे कहिए सफ़र-आबाद ख़्वाबों के सनम-ख़ाने सलामत हैं तो यूँही फ़ित्नों से रहेगा ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ओ-कमर आबाद हमसाएगी-ओ-रब्त की ख़ुशबू भी कहीं है करती हैं बहारें तो नगर पर नगर आबाद नग़्मों से जहाँ रौशनी-ए-दर्द थी कल तक सन्नाटे से है आज वो शाख़-ए-शजर आबाद 'कौसर' है सुख़न-ताब मिरा शहर-ए-तख़य्युल इस शहर में हैं आज भी आईना-गर आबाद