क़ारूँ उठा के सर पे सुना गंज ले चला दुनिया से क्या बख़ील ब-जुज़ रंज ले चला मिन्नत थी बोसा-ए-लब-ए-शीरीं कि दिल मिरा मुझ को सू-ए-मज़ार-ए-शकर गंज ले चला साक़ी सँभालता है तो जल्दी मुझे संभाल वर्ना उड़ा के पाँ नशा-ए-बंज ले चला दौड़ा के हाथ छाती पे हम उन की यूँ फिरे जैसे कोई चोर आ के हो नारंज ले चला चौसर का लुत्फ़ ये है कि जिस वक़्त पो पड़े हम बर-चहार बोले तो बर-पंज ले चला जिस दम 'ज़फ़र' ने पढ़ के ग़ज़ल हाथ से रखी आँखों पे रख हर एक सुख़न-संज ले चला