क़सम न खाओ तग़ाफ़ुल से बाज़ आने की कि दिल में अब नहीं ताक़त सताए जाने की हमारी मौत ने कुछ मुख़्तसर किया वर्ना कुछ इंतिहा ही न थी इश्क़ के फ़साने की गिरी न बर्क़ कुछ इस ख़ौफ़ से मिरे होते तड़प के आग बुझा दूँ न आशियाने की तुम्हारा दर्द तो दरमाँ बना लिया हम ने अब और सोचिए तदबीर दिल दुखाने की ज़माना कुफ़्र-ए-मोहब्बत से कर चुका था गुरेज़ तिरी नज़र ने पलट दी हवा ज़माने की पलट पलट के क़फ़स ही की सम्त जाता हूँ किसी ने राह बताई न आशियाने की नजात दी ग़म-ए-दुनिया से दर्द-ए-दिल ने मुझे ये एक राह मिली ग़म से छूट जाने की वो सुब्ह-ए-ईद का मंज़र तिरे तसव्वुर में वो दिल में आ के अदा तेरे मुस्कुराने की बता रहा है हर अंदाज़ ख़ाक-ए-'फ़ानी' का ये ख़ाक है उसी काफ़िर के आस्ताने की