काश होती वफ़ा ज़माने में पर हक़ीक़त कहाँ फ़साने में लोग औक़ात भूल जाते हैं दूसरों का मज़ाक़ उड़ाने में सोचता हूँ कभी कभी यूँ ही हर्ज क्या था उसे मनाने में हम पड़े हैं दयार-ए-ग़ैर में यूँ जैसे लाशें हों सर्द ख़ाने में क्या कहें इक अधूरे क़िस्से को लग गई उम्र क्यों भुलाने में रोज़ ही साँस फूल जाती है ज़िंदगानी के नाज़ उठाने में हैफ़ भेजा गया हूँ मैं 'शाकिर' इत्तीफ़ाक़न ग़लत ज़माने में