काश मैं तुझ सा बेवफ़ा होता फिर मुझे तुझ से क्या गिला होता इश्क़ होता है क्या पता होता गर परिंदों से वास्ता होता बोल के मुझ से गर जुदा होता मिलने-जुलने का सिलसिला होता यूँ हो कि घर बनाएँ दीवारें रात होते ही घर गया होता बेवफ़ाई का सुर्ख़ रंग भी है इश्क़ में वर्ना क्या मज़ा होता ख़ुद पे गर इख़्तियार होता तो दूर मैं तुझ से जा चुका होता हिस्से में आता सिर्फ़ अमीरों के इश्क़ पैसों में गर बिका होता