कशिश से दिल की उस अबरू-कमाँ को हम रखा बहला जो कर क़ब्ज़े में दिल सब का फिरे था सब से वो गहला जो गुज़रा अर्श से ये न फ़लक कुर्सी है उस आगे करे है ला-मकाँ की सैर आशिक़ छोड़ नौ-महला थका आख़िर को मजनूँ ग़म से राह-ए-इश्क़ में मेरे ग़ुबार-ए-ख़ातिर ओ आँसू की बारिश देख कर चहला गुलाबी ला'ल की हुई हर कली मय-नोश सुन तुझ को चमन में है खड़ी ले जाम-ए-नीलम नर्गिस-ए-शहला रखी है हम ने बाज़ी ज़ोर से शमशीर के दुश्मन किया चाहे था सर वासोख़्त हो मुझ नक़्श से दहला तुम्हारे हुस्न के गुलशन में प्यारे कुछ न छोड़ूँगा रक़ीबों के सर ऊपर चढ़ के तोडूँगा ये फल पहला ये था 'नाजी' को लाज़िम तअन करना हर सुख़न-गो पर जवाब इस ग़ज़ल का 'हातिम' नहीं कुछ काम तो कह ला