कश्ती तो भँवर में है लेकिन साहिल की तमन्ना करते हैं सहरा में भटकते फिरते हैं मंज़िल की तमन्ना करते हैं वो जिन में वफ़ा का नाम नहीं इख़्लास से हैं जो बेगाना बे-मेहर वो कैसे हम से भला फिर दिल की तमन्ना करते हैं दीवाने चले जाते हैं तिरे अपनी धुन में बे-सुध हो कर जब होश उन्हें आता है कभी मंज़िल की तमन्ना करते हैं जो इश्क़-ओ-वफ़ा में डूबा हो दुख-दर्द जो औरों का समझे हम तुझ से ख़ुदावंदा ऐसे इक दिल की तमन्ना करते हैं ऐ 'औज' हमारे इश्क़ में तो कुछ लौस नहीं ख़ुद-ग़र्ज़ी का हैं अपनी ग़रज़ के बंदे जो हासिल की तमन्ना करते हैं