क़स्र-ए-रंगीं से गुज़र बाग़-ओ-गुलिस्ताँ से निकल है वफ़ा-पेशा तू मत कूचा-ए-जानाँ से निकल निकहत-ए-ज़ुल्फ़ ये किस की है कि जिस के आगे हुई ख़जलत-ज़दा बू सुम्बुल-ओ-रैहाँ से निकल गो बहार अब है वले रोज़-ए-ख़िज़ाँ ऐ बुलबुल यक-क़लम नर्गिस ओ गुल जावेंगे बुसताँ से निकल इम्तिहाँ करने को यूँ दिल से कहा हम ने रात ऐ दिल-ए-ग़म-ज़दा इस काकुल-ए-पेचाँ से निकल खा के सौ पेच कहा मैं तो निकलने का नहीं मगर ऐ दुश्मन-ए-जाँ चल तू मिरे हाँ से निकल हो परेशानी से जिस की मुझे सौ जमइय्यत किस तरह जाऊँ मैं उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल लाख ज़िंदान-ए-पुर-आफ़ात में होता है वो क़ैद जो कोई जाता है इस तौर के ज़िंदाँ से निकल मुझ से मुमकिन नहीं महबूब की क़त्अ-ए-उल्फ़त गरचे मैं जाऊँगा इस आलम-ए-इम्काँ से निकल चाह में मुझ को ये मुर्शिद का है इरशाद 'नज़ीर' आबरू चाहे तो मत चाह-ए-ज़नख़दाँ से निकल