कटी पतंग की मानिंद डोलते हो तुम मुझे वतन से निकाले गए लगे हो तुम ये और बात कि अब मस्लहत-शिआ'र हुए क़रीब मेरे भी वर्ना कभी रहे हो तुम कोई रफ़ीक़ न मंज़िल न कोई रख़्त-ए-सफ़र ये किस ख़ुमार में किस सम्त को चले हो तुम फ़ज़ाएँ उस की तुम्हें अब भी याद करती हैं कि जिस दयार में कुछ दिन रहे बसे हो तुम कोई उम्मीद न वा'दा न हौसला कोई यक़ीन ही नहीं आता चले गए हो तुम तुम्हारे रूप का कुंदन बता रहा है हमें किसी की आग में इक उम्र तक जले हो तुम सुकूँ का एक भी लम्हा नहीं नसीब 'अनवर' मिरा ख़याल है मेहवर से हट गए हो तुम