कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े शीशा उठा कि जू-ए-मआनी निकल पड़े प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े मुझ को है मौज मौज गिरह बाँधने का शौक़ फिर शहर की तरफ़ न रवानी निकल पड़े होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े 'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पड़े