कौन जाने कितनी बाक़ी किस के पैमाने में है जितना जिस का ज़र्फ़ है उतनी ही मय-ख़ाने में है ये तिरा एहसान है जो तू ने अपना ग़म दिया ग़म में ढल जाने की आदत तेरे दीवाने में है क्या मिरी रुस्वाइयों में तेरी रुस्वाई नहीं नाम तेरा भी तो शामिल मेरे अफ़्साने में है आँसुओं में जगमगाती हैं तिरी परछाइयाँ क्या चराग़ाँ का ये मंज़र दल के वीराने में है कह रही है मुझ से 'मोहन' चश्म-ए-साक़ी बार बार मय-कशी का लुत्फ़ पी कर ही सँभल जाने में है