कौन वाँ जुब्बा-ओ-दस्तार में आ सकता है घर का घर ही जहाँ बाज़ार में आ सकता है किस लिए ख़ुद को समझता है वो पत्थर की लकीर उस का इंकार भी इक़रार में आ सकता है मुझ को मालूम है दरियाओं का कफ़ है तुझ में तू मिरे मौजा-ए-पिंदार में आ सकता है ऐ हवा की तरह अठखेलियाँ करने वाले बल कभी वक़्त की रफ़्तार में आ सकता है सर पे सूरज है तो फिर छाँव से महज़ूज़ न हो धूप का रंग भी दीवार में आ सकता है ये जो मैं अपने तईं शाएरी करता हूँ 'अज़ीम' क्या तख़य्युल मिरा इज़हार में आ सकता है