कौन ये रौशनी को समझाए साथ देते नहीं कभी साए राज़ खुल जाए फिर वो राज़ कहाँ बात ही क्या जो लब पे आ जाए घर हमेशा ही बे-चराग़ रहा दाग़ सीने के लौ न दे पाए चाँदनी खल रही है उन की तरह गुज़रे लम्हात कितने याद आए तिरे कूचे में सुब्ह-दम अक्सर देख कर फूल हम को शरमाए धूप में मेरे साथ चलते हैं उन की पलकों के दिल-नशीं साए हम सुकूँ की तलाश में आख़िर तेरे कूचे में फिर चले आए रोज़ जाता हूँ मय-कदे की तरफ़ काश ये दिल कभी बहल जाए अब ख़राबात में वो रिंद कहाँ शब गए सुब्ह की ख़बर लाए बू-ए-मय से महक रहा है दिमाग़ बू-ए-गुल की हवस निकल जाए मय-कदा वक़्त ही पे खुलता है 'वज्द' बे-वक़्त क्यूँ चले आए