क़ुर्बतों के ये सिलसिले भी हैं चश्म-दर-चश्म रतजगे भी हैं जाने वाले दिनों के बारे में आने वालों से पूछते भी हैं बात करने से पहले अच्छी तरह हम बहुत देर सोचते भी हैं तिरी ख़ुश-हालियों की क़ामत को तेरे माज़ी से नापते भी हैं डूबते चाँद को दरीचे में चश्म-ए-पुर-नम से देखते भी हैं मुस्कुराने के साथ याद रहे क़ौस के रंग टूटते भी हैं शाम होते ही बस्तियों से दूर साए सायों से बोलते भी हैं तेरी पहचान कर गई रुस्वा लाख बच बच के हम चले भी हैं क़ुर्बतों की महक महक है वही दरमियाँ यूँ तो फ़ासले भी हैं अपना चेहरा गवाही देता है रूप की धूप में जले भी हैं चाँद के साथ साथ रातों को उस के घर तक 'ज़िया' गए भी हैं