क़यामतें गुज़र गईं रिवायतों की सोच में ख़लिश जो थी वही रही मोहब्बतों की सोच में ये अब खुला कि उस की शाएरी में मेरी बात का जो रंग ख़ास था मिटा इज़ाफ़तों की सोच में मैं अपने चेहरा-ए-जुनूँ को आइने में देख लूँ तो अक्स बुझ न जाएगा हक़ीक़तों की सोच में मैं अपनी धूप छाँव की ज़मानतें न दे सकूँ तो आप क्यूँ जलें-बुझें तमाज़तों की सोच में अजब मज़ाक़ उस का था कि सर से पाँव तक मुझे वफ़ाओं से भिगो दिया नदामतों की सोच में गई रुतों ने हँस के रास्तों के ज़ख़्म भर दिए 'हुमैरा' आज कौन था मसाफ़तों की सोच में