कई चेहरों में देखा जा रहा हूँ ज़माने की नज़र का वाहिमा हूँ ये दुनिया क्या ख़बर अब के बचेगी मैं अपना मर्सिया ख़ुद लिख रहा हूँ तजस्सुस अब नज़र का और क्या है जिधर सब देखते हैं देखता हूँ हक़ीक़त आइना जानेगा लेकिन तिरी ख़ातिर सँवरना चाहता हूँ कभी बनता है कोई लफ़्ज़ पैकर यूँ लिखने को मुसलसल लिख रहा हूँ अभी हूँ फूल पर शबनम का क़तरा अभी लब पर कोई हर्फ़-ए-दुआ हूँ खुला हर एक दर 'फ़ारूक़' मुझ पर सहर के वक़्त चिड़ियों की नवा हूँ