ख़ाक जीना है अगर मौत से डरना है यही हवस-ए-ज़ीस्त हो इस दर्जा तो मरना है यही क़ुल्ज़ुम-ए-इश्क़ में हैं नफ़ा ओ सलामत दोनों इस में डूबे भी तो क्या पार उतरना है यही क़ैद-ए-गेसू से भला कौन रहेगा आज़ाद तेरी ज़ुल्फ़ों का जो शानों पे बिखरना है यही ऐ अजल तुझ से भी क्या ख़ाक रहेगी उम्मीद वादा कर के जो तिरा रोज़ मुकरना है यही और किस वज़्अ के जूया हैं उरूसान-ए-बहिश्त हैं कफ़न सुर्ख़ शहीदों का सँवरना है यही हद है पस्ती की कि पस्ती को बुलंदी जाना अब भी एहसास हो इस का तो उभरना है यही तुझ से क्या सुब्ह तलक साथ निभेगा ऐ उम्र शब-ए-फ़ुर्क़त की जो घड़ियों का गुज़रना है यही हो न मायूस कि है फ़त्ह की तक़रीब शिकस्त क़ल्ब-ए-मोमिन का मिरी जान निखरना है यही नक़्द-ए-जाँ नज़्र करो सोचते क्या हो 'जौहर' काम करने का यही है तुम्हें करना है यही