ख़ाक का रिज़्क़ यहाँ हर कस-ओ-ना-कस निकला ये बदन सींचने वाला बड़ा बेबस निकला वो जो करता था सदा ख़िर्क़ा-ए-दरवेश की बात वो भी दरबार में वारफ़्ता-ए-अत्लस निकला ज़रफ़िशाँ है मिरी ज़रख़ेज़ ज़मीनों का बदन ज़र्रा ज़र्रा मिरे पंजाब का पारस निकला मेरी हैरत को भी तारीख़ में महफ़ूज़ करो मेरे अहबाब में हर शख़्स बुरोटस निकला तितलियाँ प्यार की थक-हार के लौट आई हैं ग़ुंचा-ए-चश्म ही उस शख़्स का बे-रस निकला ये क़लम मुजरिम-ए-तौसीफ़-ए-ग़ज़ालाँ 'अंजुम' वक़्त पड़ने पे तो ये फ़ील का आँकस निकला