ख़िज़ाँ का ख़ौफ़ भी है मौसम-ए-बहार भी है कभी तुम्हारा कभी अपना इंतिज़ार भी है सिमटती जाती हूँ बढ़ती हैं दूरियाँ जब भी अजीब शख़्स है नफ़रत भी उस से प्यार भी है हुआ है ज़ख़्मी मिरा ए'तिमाद जिस दिन से उदास ही नहीं दिल मेरा बे-क़रार भी है अलग है सब से तबीअ'त ही उस की ऐसी है वो बे-वफ़ा है मगर उस पे ए'तिबार भी है बहारें जाती हैं जाने दो तुम तो रुक जाओ बहुत दिनों से तबीअ'त में इंतिशार भी है खड़ी हूँ आज भी मैं संग-ए-मील की सूरत 'किरन' किसी का ज़माने से इंतिज़ार भी है