ख़िज़ाँ की ज़द में गुल-ए-तर है क्या किया जाए यही चमन का मुक़द्दर है क्या किया जाए दिल-ओ-निगाह को जिस से सुकूँ मयस्सर था लहू लहू वही मंज़र है क्या किया जाए बुलंद-ओ-पस्त का हर इम्तियाज़ बे-मा'नी अजीब वक़्त का तेवर है क्या किया जाए ख़ुदा का शुक्र है जिस हाल में गुज़र जाए इक इंतिशार तो घर घर है क्या किया जाए ज़बाँ से फूल बरसते हैं गुफ़्तुगू ऐसी और आस्तीनों में ख़ंजर है क्या किया जाए जो अपनी ज़ात की तारीकियों में गुम है अभी वो सुब्ह-ए-नौ का पयम्बर है क्या किया जाए कहाँ तलक कोई परखे कि अब ब-सूरत-ए-ख़ैर क़दम क़दम पे अजब शर है क्या किया जाए कहाँ का जज़्बा-ए-हुब्ब-ए-वतन कहाँ का ख़ुलूस बस इक़्तिदार का चक्कर है क्या किया जाए क़दम क़दम पे है ग़ौग़ा-ए-बरतरी का जुनूँ हर एक एक से बढ़ कर है क्या किया जाए जो गुल-ब-दस्त थे 'फ़ाख़िर' कभी हमारे लिए उन्हीं के हाथ में पत्थर है क्या किया जाए