ख़िज़र क्या हम तो इस जीने में बाज़ी सब से जीते हैं दम अब उक्ता गया अल्लाहु-अकबर कब से जीते हैं समझ ले क़ासिदों ने कुछ तो ऐसी ही ख़बर दी है कहें क्या तुझ से ऐ नासेह कि जिस मतलब से जीते हैं किसी हालत न हम से बढ़ सकेगी रात फ़ुर्क़त की कि हम बाज़ी सियह-बख़्ती में भी इस शब से जीते हैं दम अपना घुट के कब का हिज्र-ए-जानाँ में निकल जाता मदद-गारी-ए-शोर-ए-नारा-ए-यारब से जीते हैं इसे बावर कर ऐ ग़म-ख़्वार कब के मर गए होते पयाम-ए-वस्ल जब से सुन लिया है तब से जीते हैं ज़बाँ क़ाबू में है सुनने को तश्बीहें सुने जाओ नज़ाकत में कहाँ औराक़-ए-गुल उस लब से जीते हैं अबस दरयाफ़्त करते हो सबब इस सख़्त-जानी का ख़ुदा जाने कि हम ऐ 'शाद' किस मतलब से जीते हैं