ख़िलाफ़-ए-रस्म-ए-तग़ज़्ज़ुल ग़ज़ल-सरा हूँ मैं रुबाब-ए-वक़्त की बिगड़ी हुई सदा हूँ मैं फ़ज़ाएँ दें न जगह मेरी बे-क़रारी को हवाएँ मुझ को सुला दें कि जागता हूँ मैं जरस हूँ मैं मिरा नाला मिरी तबीअत है ये क्यूँ कहूँ कि किसी को पुकारता हूँ मैं गिरा तो हूँ मगर ऐ चश्म-ए-ए'तिबार ये देख कि किस बुलंदी-ए-मेआर से गिरा हूँ मैं मिरी फ़ुग़ाँ से शिकायत है सोने वालों को मिरा गुनाह यही है कि जागता हूँ मैं 'जमील' ख़ुन्की-ए-मर्हम का मैं नहीं क़ाएल जराहतों को नमक-दाँ दिखा रहा हूँ मैं